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19/4/20

किसी भी लोकतांत्रिक देश में सत्ता के विरोध के स्वर उठना कोई बड़ी बात नहीं है। विरोध और समर्थन दोनों ही किसी देश के लोकतांत्रिक होने का प्रमाण हैं। विरोध करना गलत भी नहीं है, लेकिन उसके पीछे एक वाज़िब कारण होना चाहिए। केवल इसलिए नहीं कि आपको विरोध करने का अधिकार है। 


अपने दूसरे कार्यकाल में मोदी सरकार ने कई अहम फैसले लिए इनमें से एक है नागरिकता संशोधन कानून। 09 दिसंबर 2019 को भारत के गृहमंत्री अमित शाह ने लोकसभा में नागरिकता संसोधन विधेयक पेश किया। इस विधेयक मे पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में धार्मिक आधार पर प्रताड़ना झेल रहे हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई इन छः धर्मों के लोगों को नागरिकता देने का प्रावधान है। इस विधेयक मे यह स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि इन तीनों देशों में धार्मिक आधार पर प्रताड़ना झेल रहे अल्पसंख्यकों को भारत की नागरिकता दी जाएगी। ये तीनों देश मुस्लिम बाहुल्य देश हैं जिनमें हिंदुओं के साथ हो रही प्रताड़ना और अत्याचार जग जाहिर हैं। नये कानून की मदद से अब पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश से आये छः धर्म के वो लोग जिन्होंने 31 दिसंबर 2014 की निर्णायक तारीख तक भारत में प्रवेश कर लिया था, वे सभी भारत की नागरिकता के लिए आवेदन कर सकेंगे। इस कानून के विरोधियों का कहना है कि इसमें सिर्फ गैर मुस्लिम लोगों को नागरिकता देने की बात कही गई है, इसलिए ये धार्मिक भेदभाव वाला कानून है जो कि संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है। डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने 10 अगस्त 1949 को नागरिकता से संबंधित अनुच्छेद 52 भारत की संविधान सभा के समक्ष पेश किया उन्होंने गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 के अनुसार नागरिकता को परिभाषित किया जो भारत में पैदा हुआ अथवा जिसके माता-पिता भारतीय क्षेत्र में पैदा हुए थे मथुरा मथुरा कम से कम 5 साल के लिए भारत के सामान्य नागरिक रहे तुरंत इस प्रक्रिया के आरंभ होने के बाद भारत के नागरिक बन सकते हैं बाबा साहब ने पाकिस्तान से आने वाले हिंदू और सिखों को भी भारतीय नागरिकता देने की संवैधानिक व्यवस्था की थी थी उन्होंने 19 जुलाई 1948 से पहले लोगों को शामिल शामिल किया था शामिल शामिल पहले लोगों को शामिल शामिल किया था शामिल लोगों को शामिल शामिल किया था आज भी संविधान की मूल प्रति में यह व्यवस्था पढ़ने को मिल जाएगी


नागरिकता संसोधन कानून की गंभीरता को समझने के लिए इतिहास के पन्ने उलट कर देखना बहुत जरूरी है। स्वतंत्रता की संभावना से अभिभूत तत्कालीन नेतृत्व पाकिस्तान के निर्माण को गंभीरता से नहीं ले रहे थे। वे यह मानकर चल रहे थे कि भावनाओं का यह उफान जल्द ही थम जाएगा और पाकिस्तान लंबे समय तक नहीं जी सकेगा तथा अंततः भारत पुनः एक हो जाएगा। उन नेताओं का ये भ्रम एक बड़ी भूल बनकर सामने आया और विभाजन की विभीषिका हिंसा और रक्तचाप लेकर आई। विभाजन के समय लाखों लोग विस्थापित न हो सके और वह जहाँ के तहाँ रह गए। उस समय दोनों देशों के बीच नेहरू-लियाकत समझौता हुआ जिसके अनुसार दोनों देशों ने अल्पसंख्यकों को सुरक्षा और समानता देने की बात कही। भारत ने अपना वादा बखूबी निभाया लेकिन पाकिस्तान में जल्द ही अल्पसंख्यकों की धार्मिक आस्थाओं को समाप्त करने की कोशिशें होने लगी। भारत ने इस समझौते का एकतरफा पालन किया जिसका उदाहरण भारत में फलता फूलता मुस्लिम समाज है। आजादी के बाद से ही पाकिस्तान में गैर इस्लामिक लोगों पर अत्याचार होने लगे थे। बलात मतांतरण, हत्या एवं पलायन को मजबूर करने के कारण पाकिस्तान जैसे देशों में गैर इस्लामिक लोगों का प्रतिशत निरंतर घटता रहा है। 'ग्लोबल ह्यूमन राइट्स डिफेंस'  एक अंतरराष्ट्रीय संस्था है जो कि मानव अधिकारों के लिए कार्य करती है। इस संस्था ने 22 सितंबर 2018 को संयुक्त राष्ट्र संघ के मुख्यालय के बाहर प्रदर्शन किया, जिसका उद्देश्य पाकिस्तान में धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों के उत्पीड़न पर अंतरराष्ट्रीय जागरूकता पैदा करना था। सैकड़ों शांतिपूर्ण लोगों ने जोर दिया कि संयुक्त राष्ट्र यूरोपीय संघ और दूसरे अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को पाकिस्तान की धार्मिक अल्पसंख्यकों की सुरक्षा पर ध्यान देने की तत्काल आवश्यकता है। इसी प्रकार 25 जुलाई 2018 को कैलिफोर्निया से डेमोक्रेटिक सदस्य 'एडम सेफ' ने सदन में अपनी चिंता व्यक्त करते हुए कहा "मैं पाकिस्तान के सिंध प्रांत में मानव अधिकारों के हनन पर सदन का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ। सालों से, सिंध में राजनीतिक कार्यकर्ताओं और धार्मिक अल्पसंख्यकों को प्रतिदिन जबरन धर्म परिवर्तन, सुरक्षाबलों द्वारा अपहरण और हत्या के खतरों का सामना करना पड़ता है।" वहीं अमेरिकी संसद की सदस्य और अमेरिकी राष्ट्रपति उम्मीदवार की दौड़ में शामिल तुलसी गबार्ड भी 21 अप्रैल 2016 को बांग्लादेश में धार्मिक अल्पसंख्यकों की स्थिति का खुलासा कर चुकी हैं। उन्होंने कहा "दुर्भाग्य से बांग्लादेश में नास्तिक, धर्मनिरपेक्षतावादियों, हिंदू, बौद्ध और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ भेदभाव और घातक हिंसा की नियमित घटनाएं हो रही हैं।" इन सबके बावजूद भी भारत के कई वामपंथी संगठन एवं राजनैतिक दल इस कानून का विरोध कर रहे हैं। वह मुस्लिमों को इस कानून में शामिल न किए जाने का विरोध कर रहे हैं, जबकि वह बखूबी जानते हैं कि बांग्लादेश अफगानिस्तान और पाकिस्तान तीनों घोषित इस्लामिक राष्ट्र हैं। ऐसे में इन देशों में मुस्लिमों के प्रताड़ित होने का सवाल ही पैदा नहीं होता। 

यदि आंकड़ों की बात करें तो विभाजन के समय पाकिस्तान में गैर इस्लामिक लोगों का प्रतिशत तत्कालीन कुल आबादी का 23% था, जो आज घटकर कुल 1.5-2% रह गया है। इसी तरह बंग्लादेश (तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान) में गैर इस्लामिक जनसंख्या 1947 में वहां की कुल जनसंख्या का 30% थी जो आज घटकर 8% रह गई है। अफगानिस्तान में भी यह जनसंख्या लगभग 7 लाख थी जो 1990 के गृहयुद्ध के बाद से लगातार घटती रही और आज यह लगभग 3000 रह गई है। यह प्रश्न उठना लाजमी है कि इस दौरान जब भारत में अल्पसंख्यक आबादी बढ़ रही थी तो फिर इन देशों में कैसे घट गई? कहाँ गए वे लोग? वे लोग या तो मार दिये गए या जबरदस्ती धर्मांतरित कर दिये गए।

विभाजन के बाद इन देशों में प्रताड़ना झेल रहे गैर इस्लामिक लोग बड़ी संख्या में शरणार्थी बनकर भारत आए। उस समय महात्मा गांधी ने कहा था "एक ही भारत के दो टुकड़े हुए हैं, भारत में आए हुए लोगों को नागरिकता देना हमारा कर्तव्य है" यही बात पंडित नेहरू और सरदार पटेल ने भी कही थी। भारत में आये शरणार्थी दस्तावेजों के अभाव में अपनी पहचान को छिपाकर रहने के लिए बाध्य होते थे। नागरिकता संशोधन कानून-2019 के आने से पहले उन्हें किसी प्रकार की कानूनी सहायता, नौकरी, निवास यहाँ तक कि स्कूलों में बच्चों के प्रवेश के लिए भी 11 साल के लंबे समय की प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। नए कानून में 11 वर्षों तक भारत में निवास करने की शर्त को कम कर 5 वर्ष को कम कर 5 वर्ष किया गया तथा वैद्य पत्रों की अनिवार्यता को भी शिथिल किया गया, क्योंकि जिन परिस्थितियों में यह लोग अपनी जान बचाकर किसी प्रकार भारत में प्रवेश करते हैं उसमें अपने सारे दस्तावेज साथ रख पाना प्रायः असंभव होता है।

नागरिकता संशोधन कानून 2019 में न तो भारत में निवास कर रहे किसी भारतीय को बाहर किए जाने की व्यवस्था है और ना ही किसी के भारतीय नागरिकता ग्रहण करने पर कोई रोक लगाई गई है। भारतीय नागरिक बनने के लिए निश्चित शर्तों और प्रक्रियाओं का पालन करना जरूरी है जिन्हें पूरा कर कोई भी भारतीय नागरिक बन सकता है। एक अच्छे उद्देश्य से लाए गए इस कानून का विरोध संसद के भीतर और बाहर दोनों जगह किया गया। राजनीतिक दलों ने इसे लेकर जिस प्रकार की प्रतिक्रिया दीं उसके कारण राजधानी दिल्ली सहित देश के अनेक भागों में धरना प्रदर्शनों ने हिंसक रूप ले लिया, जान-माल और सरकारी संपत्ति का भी भारी नुकसान भी भी सरकारी संपत्ति का भी भारी नुकसान भी भी भारी नुकसान हुआ। इस कानून को लेकर भ्रामक सूचनाएं फैलाई गई। तथ्यों से परे मुस्लिम समाज को संगठित करने और डराने वाली सामग्री ने सोशल मीडिया को पाट दिया। देश के चुनिंदा विश्वविद्यालय और मस्जिद इसका केंद्र बने। तमाम विपक्षी दल अराजक तत्वों के समर्थन में खड़े आए और किसी ने भी हिंसा एवं अराजकता की निंदा नहीं की।

नागरिकता संशोधन विधायक दोनों सदनों में पूर्ण बहुमत से पास  होकर ही कानून बना। देश के गृह मंत्री अमित शाह ने 9 दिसंबर 2019 को इस विधेयक को लोकसभा में पेश किया तब विधेयक के पक्ष में 311 तथा विरोध में 80 वोट पड़े। इसी प्रकार 11 दिसंबर 2019 को यह बिल राज्यसभा में पेश किया गया जहां इसके पक्ष में 125 और विरोध में 105 वोट पड़े दोनों सदनों से पास होने के बाद 12 दिसंबर 2019 को भारत के राष्ट्रपति ने विधेयक पर हस्ताक्षर कर इसे कानूनी रूप दिया।

नागरिकता कानून में पहले भी 9 संशोधन किए जा चुके हैं जिनमें से पहले 8 कांग्रेस की केंद्र सरकारों ने किए हैं लेकिन आज जब केंद्र की मोदी सरकार ने मोदी सरकार ने इस कानून में संशोधन में संशोधन किया तो सबसे पहले विरोध करने वाले वही थे। गृहमंत्री ने विधेयक पेश करते हुए संसद में कहा था "कि यह बिल कभी संसद में ना आता अगर भारत का बंटवारा ना हुआ होता बंटवारे हुआ होता बंटवारे के बाद जो परिस्थितियां आई उनके समाधान के लिए यह बिल लाया गया है।"


नागरिकता संशोधन कानून का विरोध करना मेरी नजर में मानवता का विरोध करने जैसा है। भारत हमेशा ही दुनिया से सताये हुए लोगों को शरण देता रहा है फिर आज पड़ौसी तीन देशों से सताये लोगों को नागरिकता देने का विरोध क्यों? कानून में यह स्पष्ट है कि इस कानून से किसी भी भारतीय की नागरिकता पर कोई खतरा नहीं है। भारतीय मुसलमानों को इससे डरने की भी कोई आवश्यकता नहीं। इसके बावजूद भी पूरे देश में अलग-अलग स्थानों पर इसे लेकर विरोध प्रदर्शन जारी है। विरोध प्रदर्शन में बैठे अधिकांश लोगों को तो कानून की जानकारी भी नहीं है, वह केवल सोशल मीडिया एवं कुछ बिकाऊ मीडिया की फेक न्यूज़ को पढ़कर या सुनकर कानून का विरोध कर रहे हैं। इस कानून को लेकर तमाम वामपंथी संगठन एवं कुछ राजनीतिक दल भ्रम फैला रहे हैं, जिससे भ्रमित होकर कुछ भोले-भाले लोग कानून का विरोध कर रहे हैं। जो ये कहते हैं कि मुसलमानों को सीएए में शामिल क्यों नहीं किया वह इस बात का जबाव दें कि क्या बंग्लादेश, अफगानिस्तान और पाकिस्तान में मुसलमान प्रताड़ित है? और यदि हैं भी तो ये कानून मुसलमानों को नागरिकता देने से इंकार कतई नहीं करता। उनके लिए अलग से प्रावधान हैं, जिन्हें फाॅलो कर वह भारत की नागरिकता ले सकते हैं।

अभिलाष ठाकुर
"छात्र, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल।"


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